bihar board class 10th hindi chapter 11

Free bihar board class 10th hindi chapter 11 : पाठ नौबतखाने में इबादत

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bihar board class 10th hindi chapter 11 : बिहार बोर्ड के कक्षा 10 वीं के हिंदी विषय के पाठ 11. नौबतखाने में इबादत जो की एक व्यक्तिचित्र हैं जिसे यतीन्द्र मिश्र के द्वारा लिखा गया है | इस आर्टिकल में सम्पूर्ण जानकारी सवालों के जवाब और महत्पूर्ण बिंदु को जानेगें जो आपके प्रतियोगिता परीक्षा में आपको सफलता दिलाने में मदद करने वाली हैं |

नौबतखाने में इबादत यतीन्द्र मिश्र द्वारा लिखा गया व्यक्तिचित्र है, जिसमें शहनाई के महान उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के जीवन और उनके संगीत के प्रति समर्पण का वर्णन है। उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई वादन को एक साधना और इबादत के रूप में देखा। वे बनारस के प्रति गहरे लगाव और सादगीपूर्ण जीवन के लिए जाने जाते थे। उनके लिए संगीत केवल कला नहीं, बल्कि आत्मा की शुद्धि और ईश्वर की आराधना का माध्यम था। पाठ में उनके संगीत की आध्यात्मिकता और बनारस के वातावरण का प्रभाव उस्ताद के जीवन पर दिखाया गया है।

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bihar board class 10th hindi chapter 11

Board NameBihar School Examination Board
Class10th
SubjectHindi ( गोधूलि भाग-2 )
Chapterनौबतखाने में इबादत ( व्यक्तिचित्र )
Writerयतीन्द्र मिश्र
Sectionगद्यखंड
LanguageHindi
Exam2025
Last UpdateLast Weeks
Marks100

पाठ 11: नौबतखाने में इबादत
लेखक: यतीन्द्र मिश्र

पाठ का सारांश:
“नौबतखाने में इबादत” एक व्यक्तिचित्र है, जिसमें लेखक यतीन्द्र मिश्र ने प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का वर्णन किया है। यह पाठ उस्ताद की संगीत साधना, उनकी सरलता, और उनकी आध्यात्मिकता को उजागर करता है।

मुख्य विषय-वस्तु:
इस पाठ में, उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है। लेखक ने उनके व्यक्तित्व, संगीत के प्रति उनकी अटूट श्रद्धा, और बनारस शहर के प्रति उनके विशेष लगाव को विस्तार से वर्णित किया है। पाठ में उस्ताद के संगीत को उनकी इबादत के रूप में दर्शाया गया है। वे शहनाई वादन को न केवल एक कला के रूप में देखते थे, बल्कि उसे अपनी आस्था और भक्ति का माध्यम मानते थे।

उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का व्यक्तित्व:
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ बहुत ही सरल, सादगीपूर्ण और धार्मिक व्यक्ति थे। वे अपने संगीत को ईश्वर की आराधना मानते थे। उनके लिए संगीत केवल मनोरंजन का साधन नहीं था, बल्कि आत्मा को शुद्ध करने का मार्ग था। उस्ताद की सादगी का एक उदाहरण यह है कि उन्होंने बनारस को कभी नहीं छोड़ा, भले ही उन्हें विदेशों से कई बड़े-बड़े आमंत्रण मिले।

बनारस और उस्ताद:
उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ का बनारस के साथ गहरा संबंध था। उनके जीवन में बनारस की गलियों, घाटों और गंगा नदी का विशेष महत्व था। वे बनारस के बिना अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। बनारस के विभिन्न धार्मिक स्थलों और वहां की आध्यात्मिकता का उस्ताद के संगीत पर गहरा प्रभाव पड़ा।

संगीत और आध्यात्मिकता:
पाठ में उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ के शहनाई वादन को एक इबादत के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उनके लिए संगीत एक साधना थी, जिसमें वे पूरी तरह से डूब जाते थे। उनका मानना था कि जब तक संगीत में आत्मा नहीं होगी, तब तक वह लोगों के दिलों को नहीं छू सकेगा।

निष्कर्ष:
“नौबतखाने में इबादत” पाठ में उस्ताद बिस्मिल्ला खाँ की साधना, उनके व्यक्तित्व की सरलता, और संगीत के प्रति उनके अटूट समर्पण को दर्शाया गया है। यह पाठ एक अद्वितीय संगीतज्ञ की जीवन यात्रा को समझने का अवसर प्रदान करता है, जिसने संगीत को अपनी इबादत बनाया और उसे एक उच्च आध्यात्मिक स्तर तक पहुँचाया।

मौतबखाने में इबादत ( व्यक्तिचित्र ) से संबधित महत्पूर्ण प्रश्न उत्तर

प्रश्न 1: डुमराँव की महत्ता किस कारण से है?

उत्तर:
डुमराँव की महत्ता शहनाई के कारण है। यह वह स्थान है जहां प्रसिद्ध शहनाईवादक बिस्मिल्ला खाँ का जन्म हुआ था। शहनाई बजाने में जिस ‘रीड’ का प्रयोग होता है, वह ‘नरकट’ नामक घास से बनाई जाती है, जो डुमराँव में सोन नदी के किनारे पाई जाती है। इस तरह, डुमराँव का नाम शहनाई और बिस्मिल्ला खाँ से जुड़ा होने के कारण महत्वपूर्ण है।


प्रश्न 2: सुषिर वाद्य किन्हें कहते हैं? ‘शहनाई’ शब्द की व्युत्पत्ति किस प्रकार हुई है?

उत्तर:
सुषिर वाद्य वे वाद्य होते हैं जिनमें नाड़ी (नरकट या रीड) होती है और जिन्हें फूंककर बजाया जाता है। इन वाद्यों में शहनाई का स्थान सर्वोच्च है। ‘शहनाई’ शब्द की व्युत्पत्ति ‘शाह’ (राजा) और ‘नाई’ (नाद) से हुई है। शहनाई की ध्वनि इतनी मोहक होती है कि यह अन्य वाद्यों से अधिक हमारे हृदय को स्पर्श करती है, इसलिए इसे शहनाई कहा गया।


प्रश्न 3: बिस्मिल्ला खाँ सजदे में किस चीज के लिए गिड़गिड़ाते थे? इससे उनके व्यक्तित्व का कौन-सा पक्ष उद्घाटित होता है?

उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ जब इबादत में सजदे में झुकते थे, तो वे सच्चे सुर का वरदान माँगते थे। इससे उनके व्यक्तित्व का धार्मिकता, संवेदनशीलता और निरभिमानी स्वभाव स्पष्ट होता है। उनका संगीतमय समर्पण और विनम्रता उनकी महानता को दर्शाते हैं।


प्रश्न 4: मुहर्रम पर्व से बिस्मिल्ला खाँ के जुड़ाव का परिचय पाठ के आधार पर दें।

उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ एक सच्चे धार्मिक मुसलमान थे और मुहर्रम के रीति-रिवाजों का पालन करते थे। मुहर्रम के आठवीं तारीख पर वे शहनाई बजाते हुए लगभग आठ किलोमीटर की दूरी तक पैदल चलते और नौहा बजाते जाते थे। इस दिन वे कोई राग-रागिनी नहीं बजाते थे, जिससे उनके धार्मिक समर्पण का परिचय मिलता है।


प्रश्न 5: ‘संगीतमय कचौड़ी’ का आप क्या अर्थ समझते हैं?

उत्तर:
‘संगीतमय कचौड़ी’ से तात्पर्य यह है कि बिस्मिल्ला खाँ का मन इतना संगीत में डूबा रहता था कि जब जुलसुम घी में कचौड़ी डालती, तब उसके छन्न की आवाज में भी उन्हें संगीत के आरोह-अवरोह महसूस होते थे। इस प्रकार, खाँ साहब के लिए हर चीज में संगीत का अनुभव होता था, यहां तक कि कचौड़ी में भी।

प्रश्न 6: बिस्मिल्ला खाँ जब काशी से बाहर प्रदर्शन करते थे तो क्या करते थे? इससे हमें क्या सीख मिलती है?

उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ जब भी काशी से बाहर जाते थे, तब भी वे काशी विश्वनाथ को नहीं भूलते थे। वे विश्वनाथ मंदिर की दिशा में मुंह करके बैठकर थोड़ी देर के लिए शहनाई अवश्य बजाते थे। यह उनकी गहरी आस्था और श्रद्धा को दर्शाता है। बिस्मिल्ला खाँ, जो एक मुसलमान थे, लेकिन काशी विश्वनाथ के प्रति उनकी अपार श्रद्धा हमें धार्मिक सहिष्णुता और समन्वय की सीख देती है। इससे हमें यह समझना चाहिए कि धर्म को लेकर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं होना चाहिए और हमें एक-दूसरे के धर्म का सम्मान करना चाहिए।


प्रश्न 7: ‘बिस्मिल्ला खाँ का मतलब – बिस्मिल्ला खां की शहनाई।’ एक कलाकार के रूप में बिस्मिल्ला खाँ का परिचय पाठ के आधार पर दें।

उत्तर:
बिस्मिल्ला खाँ एक महान शहनाईवादक थे जिन्होंने शहनाई को अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लिया था। उनके लिए शहनाई बजाना सिर्फ एक कला नहीं, बल्कि एक साधना थी। उनकी शहनाई से निकलने वाले सुरों ने उन्हें अद्वितीय पहचान दिलाई। बिस्मिल्ला खाँ की शहनाई का अर्थ था—उनकी आत्मा और संगीत का मिलन। उनकी शहनाई की ध्वनि में गंगा, परवरदिगार, और उनके उस्ताद की शिक्षा की गहराई महसूस की जा सकती थी। उनके और शहनाई के बीच का रिश्ता इतना गहरा था कि वे दोनों एक-दूसरे के पर्याय बन गए। बिस्मिल्ला खाँ ने शहनाई को एक नई ऊंचाई पर पहुंचाया, और उनका नाम शहनाई के साथ सदैव जुड़ा रहेगा।

प्रश्न 8: आशय स्पष्ट करें

(क) फटा सुर न बखगे। लुंगिया का क्या है, आज फटी है, तो कल सिल जाएगी।

व्याख्या:
जब एक शिष्या ने बिस्मिल्ला खाँ से पूछा कि वे फटी तहमद (लुंगी) क्यों पहनते हैं, जबकि उन्हें भारतरत्न मिल चुका है, तो बिस्मिल्ला खाँ ने सहज भाव से उत्तर दिया कि भारतरत्न उन्हें शहनाईवादन के लिए मिला है, न कि उनकी लुंगी के लिए। उन्होंने कहा कि अगर वे बनावट और श्रृंगार में समय लगाते, तो संगीत साधना के लिए समय नहीं बचता। बिस्मिल्ला खाँ ने यह भी कहा कि फटी लुंगी तो सिलवाई जा सकती है, लेकिन अगर सुर फट जाए, तो उसे ठीक करना मुश्किल है। उनका मुख्य ध्यान हमेशा सुर की कोमलता और लय पर होता था, और वे इस बात के लिए ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि उनके सुर हमेशा सही रहें।

(ख) काशी संस्कृति की पाठशाला है।

व्याख्या:
काशी को सांस्कृतिक महानगरी और संस्कृति की पाठशाला के रूप में जाना जाता है। काशी की महत्ता शास्त्रों में भी वर्णित है, और इसे आनंद कानन (आनंद का वन) कहा जाता है। काशी में कला, संगीत, और धर्म का गहरा संबंध है। यहाँ के कलाकार, जैसे बिस्मिल्ला खाँ, काशी की सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करते हैं। काशी का इतिहास हजारों साल पुराना है, और यहाँ की अनूठी संस्कृति, बोली, और रस्में इसे विशेष बनाती हैं। काशी में संगीत, भक्ति, और धर्म को अलग नहीं किया जा सकता, और यही कारण है कि काशी को एक सांस्कृतिक पाठशाला कहा जाता है।


प्रश्न 9: बिस्मिल्ला खाँ के बचपन का वर्णन पाठ के आधार पर दें।

उत्तर:बिस्मिल्ला खाँ, जिनका असली नाम अमीरुद्दीन था, का जन्म बिहार के डुमराँव में एक संगीत-प्रेमी परिवार में हुआ था। जब वे पाँच-छह साल के थे, तब वे अपने ननिहाल काशी चले गए। डुमराँव की एक खास बात यह है कि यहाँ की सोन नदी के किनारे उगने वाले नरकट से शहनाई की रीड बनाई जाती है। बिस्मिल्ला खाँ के परदादा, उस्ताद सलार हुसैन खाँ, डुमराँव के निवासी थे। बिस्मिल्ला खाँ के पिता का नाम पैगंबर बख्श खाँ था, और उनकी माता का नाम मिट्ठन था। बचपन में ही वे अपने नाना की शहनाई से प्रभावित हो गए थे और शहनाई के प्रति उनका आकर्षण बढ़ता गया। उनका शहनाईवादन का कौशल उनके मामा के मार्गदर्शन में और अधिक विकसित हुआ। चौदह साल की उम्र में वे बालाजी के मंदिर में रियाज करने लगे, और यहीं से उनकी संगीत साधना का सफर शुरू हुआ, जो आगे चलकर उन्हें महान कलाकार बना गया।

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