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{ Free } Bihar Board Class 10th Hindi : Chapter (1.) -श्रम विभाजन और जाति प्रथा

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Bihar Board Class 10th Hindi : इस आर्टिकल में आप बिहार बोर्ड के कक्षा 10वीं के हिंदी अध्याय 1. श्रम विभाजन और जाति प्रथा के बारे में महत्पूर्ण जानकारी, परीक्षा उपयोगी सवालों को जानने वालें है जिसकी मदद और सरल शब्दों में इस श्रम विभाजन और जाति प्रथा को समझते हैं |

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Bihar Board Class 10th Hindi

Board NameBihar School Examination Board
Class 10th
Chapter श्रम विभाजन और जाति प्रथा
Language Hindi
Exam2025
Last Update Last Weeks
Marks100

Chapter (1.) -श्रम विभाजन और जाति प्रथा

भारत की सामाजिक संरचना में श्रम विभाजन और जाति प्रथा का विशेष स्थान रहा है। ऐतिहासिक दृष्टि से, यह प्रथाएं समाज में कार्यों के बंटवारे और सामाजिक वर्गों के निर्माण का आधार बनीं।

श्रम विभाजन:

श्रम विभाजन का अर्थ है कि समाज के विभिन्न कार्यों को विभाजित करके विभिन्न समूहों के बीच बांट दिया जाए। इसका मुख्य उद्देश्य था कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी योग्यता और क्षमता के अनुसार कार्य करे, जिससे समाज में एक संतुलन बना रहे। इस प्रणाली ने समाज को विशेषीकृत कार्यकर्ताओं की एक श्रेणी प्रदान की, जैसे कृषि, शिल्प, व्यापार आदि में विशेषज्ञता रखने वाले लोग।

जाति प्रथा:

जाति प्रथा भारतीय समाज की एक विशेष विशेषता रही है, जिसमें समाज को विभिन्न जातियों में बांटा गया है। यह प्रथा जन्म के आधार पर निर्धारित होती है और प्रत्येक जाति के लोगों का एक निश्चित पेशा होता था। जैसे कि ब्राह्मण धर्मशास्त्र और शिक्षा का कार्य करते थे, क्षत्रिय रक्षा का कार्य करते थे, वैश्य व्यापार और कृषि का कार्य करते थे, और शूद्र सेवा और श्रम का कार्य करते थे।

श्रम विभाजन और जाति प्रथा का संबंध:

श्रम विभाजन और जाति प्रथा का आपस में गहरा संबंध है। जाति प्रथा ने श्रम विभाजन को और अधिक संगठित और स्थायी बना दिया। विभिन्न जातियों के लोगों को उनके पारंपरिक कार्यों में बांध दिया गया, जिससे एक स्थायी श्रम विभाजन का निर्माण हुआ। हालांकि, यह प्रथा धीरे-धीरे समाज में असमानता और भेदभाव का कारण बनी।

जाति प्रथा ने समाज को स्तरीकरण और अलगाव की ओर धकेला, जहां उच्च जातियों के लोग अधिक सुविधाओं और सम्मान के अधिकारी बने, जबकि निम्न जातियों के लोग अपमान और शोषण के शिकार हुए। यह सामाजिक असमानता के कारण भारत के सामाजिक विकास में बाधक साबित हुआ।

आधुनिक संदर्भ:

आधुनिक समय में, भारतीय समाज ने जाति प्रथा के दुष्परिणामों को पहचाना है और संविधान में इसे समाप्त करने के प्रयास किए गए हैं। श्रम विभाजन अब योग्यता और शिक्षा के आधार पर होता है, न कि जाति के आधार पर। लेकिन, अभी भी समाज में जाति प्रथा के अवशेष देखे जा सकते हैं, जिन्हें समाप्त करने के लिए निरंतर प्रयास की आवश्यकता है।

निष्कर्ष:

श्रम विभाजन और जाति प्रथा ने भारतीय समाज को लंबे समय तक प्रभावित किया है। जहां श्रम विभाजन ने कार्यकुशलता और विशेषज्ञता को बढ़ावा दिया, वहीं जाति प्रथा ने समाज में असमानता और भेदभाव को जन्म दिया। आधुनिक भारत में, इन प्रथाओं से जुड़े नकारात्मक पहलुओं को समाप्त करने की दिशा में कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन पूरी तरह से सुधार की दिशा में अभी और प्रयासों की आवश्यकता है।

Most Popular Question & Answers : महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर

1. श्रम विभाजन का क्या अर्थ है और यह समाज में कैसे कार्य करता है?

उत्तर: श्रम विभाजन का अर्थ है समाज के विभिन्न कार्यों को विभाजित करके अलग-अलग व्यक्तियों या समूहों के बीच बांटना। इसका मुख्य उद्देश्य समाज में कार्यकुशलता और उत्पादकता को बढ़ाना है। उदाहरण के लिए, किसी समुदाय में कुछ लोग कृषि का कार्य करते हैं, तो कुछ लोग शिल्प, व्यापार या अन्य कार्य करते हैं। यह व्यवस्था समाज में विशेषज्ञता और दक्षता को बढ़ावा देती है।

2. जाति प्रथा का उद्भव कैसे हुआ और इसके क्या प्रमुख लक्षण हैं?

उत्तर: जाति प्रथा का उद्भव भारत के प्राचीन समाज में हुआ। यह एक सामाजिक व्यवस्था थी जिसमें समाज को विभिन्न जातियों में विभाजित किया गया, जो जन्म पर आधारित थी। जाति प्रथा के प्रमुख लक्षण हैं:

  • जन्म आधारित वर्गीकरण: व्यक्ति की जाति उसके जन्म से निर्धारित होती है।
  • पेशागत विभाजन: हर जाति का एक विशिष्ट पेशा होता है।
  • सामाजिक स्तरीकरण: जातियों में उच्च और निम्न का भेद होता है।
  • विवाह: विवाह अपने ही जाति समूह में किया जाता है।

3. श्रम विभाजन और जाति प्रथा के बीच क्या संबंध है?

उत्तर: श्रम विभाजन और जाति प्रथा का आपस में गहरा संबंध है। जाति प्रथा ने श्रम विभाजन को स्थायी और अनिवार्य बना दिया। विभिन्न जातियों के लोगों को उनके पारंपरिक कार्यों में बांध दिया गया, जिससे वे केवल अपने निर्धारित कार्यों तक सीमित रह गए। इस प्रकार, जाति प्रथा ने श्रम विभाजन को समाज में संगठित रूप में स्थापित किया।

4. प्राचीन भारतीय समाज में श्रम विभाजन और जाति प्रथा की क्या भूमिका थी?

उत्तर: प्राचीन भारतीय समाज में श्रम विभाजन और जाति प्रथा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। श्रम विभाजन ने समाज में कार्यकुशलता और विशेषज्ञता को बढ़ावा दिया, जबकि जाति प्रथा ने इस व्यवस्था को सामाजिक रूप से स्वीकृत और स्थायी बना दिया। हालांकि, यह प्रणाली धीरे-धीरे समाज में असमानता और भेदभाव का कारण बनी, जहां उच्च जातियों के लोग विशेषाधिकार प्राप्त करते थे और निम्न जातियों को शोषित किया जाता था।

5. जाति प्रथा के कारण समाज में क्या असमानताएं उत्पन्न हुईं?

उत्तर: जाति प्रथा के कारण समाज में कई प्रकार की असमानताएं उत्पन्न हुईं, जैसे:

  • सामाजिक असमानता: उच्च जातियों को सम्मान और विशेषाधिकार प्राप्त थे, जबकि निम्न जातियों के साथ भेदभाव और शोषण होता था।
  • शैक्षिक असमानता: निम्न जातियों के लोगों को शिक्षा प्राप्त करने के अवसरों से वंचित रखा गया।
  • आर्थिक असमानता: उच्च जातियों के पास भूमि और धन का अधिकार था, जबकि निम्न जातियों को केवल श्रम कार्यों में ही सीमित रखा गया।
  • सांस्कृतिक असमानता: निम्न जातियों को धार्मिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेने की अनुमति नहीं थी।

6. आधुनिक भारत में जाति प्रथा के प्रभावों को कम करने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए हैं?

उत्तर: आधुनिक भारत में जाति प्रथा के प्रभावों को कम करने के लिए कई कदम उठाए गए हैं:

  • भारतीय संविधान में विशेष प्रावधान: संविधान के अनुच्छेद 15 और 17 के तहत जाति के आधार पर भेदभाव और छुआछूत पर प्रतिबंध लगाया गया है।
  • आरक्षण प्रणाली: अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए शिक्षा और रोजगार में आरक्षण की व्यवस्था की गई है।
  • सामाजिक जागरूकता अभियान: सरकार और सामाजिक संगठनों द्वारा जाति प्रथा के खिलाफ जागरूकता फैलाने के लिए अभियान चलाए जा रहे हैं।
  • कानूनी संरक्षण: जाति आधारित अत्याचारों के खिलाफ सख्त कानून बनाए गए हैं, जैसे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम।

7. श्रम विभाजन के क्या फायदे और नुकसान होते हैं?

उत्तर:
फायदे:

  • विशेषज्ञता: श्रम विभाजन से लोग अपने कार्यों में विशेषज्ञता हासिल कर पाते हैं, जिससे कार्यकुशलता बढ़ती है।
  • उत्पादकता में वृद्धि: विशेषज्ञता के कारण उत्पादकता में वृद्धि होती है।
  • समय की बचत: श्रम विभाजन से कार्य को तेजी से पूरा किया जा सकता है।

नुकसान:

  • निर्भरता: एक ही कार्य में विशेषज्ञता के कारण व्यक्ति अन्य कार्यों में कमजोर हो सकता है।
  • एकरसता: श्रम विभाजन के कारण कार्य में एकरसता आ सकती है, जिससे व्यक्ति उबाऊ महसूस कर सकता है।
  • सामाजिक असमानता: श्रम विभाजन के कारण समाज में ऊंच-नीच का भाव उत्पन्न हो सकता है।

8. जाति प्रथा और श्रम विभाजन के कारण भारतीय समाज को किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

उत्तर: जाति प्रथा और श्रम विभाजन के कारण भारतीय समाज को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जैसे:

  • सामाजिक असमानता और भेदभाव: जाति प्रथा के कारण समाज में गहरी असमानता और भेदभाव पैदा हुआ।
  • शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ापन: निम्न जातियों को शिक्षा और आर्थिक संसाधनों से वंचित रखा गया, जिससे वे समाज के मुख्यधारा से अलग हो गए।
  • सामाजिक गतिशीलता की कमी: जाति प्रथा ने सामाजिक गतिशीलता को बाधित किया, जिससे लोगों के पास अपनी स्थिति सुधारने के सीमित अवसर थे।
  • सांस्कृतिक विभाजन: जाति प्रथा के कारण समाज सांस्कृतिक रूप से विभाजित हो गया, जिससे समाज में एकता और समरसता का अभाव हो गया।

9. आज के समय में श्रम विभाजन किस प्रकार से जाति प्रथा से भिन्न है?

उत्तर: आज के समय में श्रम विभाजन जाति प्रथा से कई प्रकार से भिन्न है:

  • योग्यता आधारित: आज श्रम विभाजन जाति के बजाय व्यक्ति की योग्यता और शिक्षा के आधार पर होता है।
  • सामाजिक गतिशीलता: आज के समाज में व्यक्ति अपनी मेहनत और शिक्षा के बल पर अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार कर सकता है, जबकि पारंपरिक जाति प्रथा में यह संभव नहीं था।
  • स्वतंत्रता: आधुनिक श्रम विभाजन में व्यक्ति अपने कार्य का चुनाव स्वतंत्रता से कर सकता है, जबकि जाति प्रथा में यह जन्म से निर्धारित होता था।

10. भारतीय संविधान में जाति प्रथा से संबंधित कौन-कौन से प्रावधान हैं?

उत्तर: भारतीय संविधान में जाति प्रथा से संबंधित कई महत्वपूर्ण प्रावधान किए गए हैं, जैसे:

  • अनुच्छेद 15: जाति, धर्म, लिंग या भाषा के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबंध।
  • अनुच्छेद 17: छुआछूत का उन्मूलन और इसके प्रचलन को दंडनीय अपराध घोषित करना।
  • अनुच्छेद 46: अनुसूचित जातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की आर्थिक और शैक्षिक उन्नति को बढ़ावा देना।
  • अनुच्छेद 330 और 332: अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए संसद और राज्य विधानसभाओं में आरक्षण की व्यवस्था।

इन प्रावधानों का उद्देश्य जाति आधारित असमानताओं को समाप्त करना और समाज में समानता को बढ़ावा देना है।

11. लेखक किस विडंबना की बात करते हैं ? विडंबना का स्वरूप क्या है ?

उत्तर – उत्तर-लेखक महोदय इस बात को विडंबना कहते हैं कि आधुनिक युग में भी “जातिवाद” के पोषकों की कमी नहीं है।विडंबना का स्वरूप यह है कि आधुनिक सभ्य समाज “कार्य-कुशलता” के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। चूंकि जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही दूसरा रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।

12. जातिवाद के पोषक उसके पक्ष में क्या तर्क देते हैं ?

उत्तर- उत्तर-जातिवाद के पोषक ‘जातिवाद’ के पक्ष में अपना तर्क देते हुए उसकी उपयोगिता को सिद्ध करना चाहते हैं- जातिवादियों का कहना है कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता’ के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है क्योंकि श्रम-विभाजन जाति प्रथा का ही दूसरा रूप है।

इसीलिए श्रम-विभाजन में कोई बुराई नहीं है। जातिवादी समर्थकों का कहना है कि माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार ही यानि गर्भधारण के समय से ही मनुष्य का पेशा निर्धारित कर दिया जाता है।  हिन्दू धर्म पेशा-परिवर्तन की अनुमति नहीं देता। भले ही वह पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त ही क्यों न हो। भले ही उससे भूखों मरने की नौबत आ जाए लेकिन उसे अपनाना ही होगा।

जातिवादियों का कहना है कि परंपरागत पेशे में व्यक्ति दक्ष हो जाता है और वह अपना कार्य सफलतापूर्वक संपन्न करता है। जातिवादियों ने ‘जातिवाद’ के समर्थन में व्यक्ति की स्वतंत्रता को अपहृत कर सामाजिक बंधन के दायरे में ही जीने-मरने के लिए विवश कर दिया है। उनका कहना है कि इससे सामाजिक व्यवस्था बनी रहती है और अराजकता नहीं फैलती।

13. जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक की प्रमुख आपत्तियाँ क्या हैं ?

उत्तर- जातिवाद’ के पक्ष में दिए गए तको पर लेखक ने कई आपत्तियाँ उठायी हैं जो चिंतनीय हैं-

लेखक के दृष्टिकोण में जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। जाति प्रथा का श्रम विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं करता। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना या व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान या महत्त्व नहीं रहता। आर्थिक पहलू से भी अत्यधिक हानिकारक जाति प्रथा है। जाति प्रथा मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्मशक्ति को दबा देती है। साथ ही अस्वाभाविक नियमों में जकड़ कर निष्क्रिय भी बना देती है।

14. जाति भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप क्यों नहीं कही जा सकती?

उत्तर : उत्तर-भारतीय समाज में जाति श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप नहीं कही जा सकती है। श्रम के नाम पर श्रमिकों का विभाजन है। श्रमिकों के बच्चे को अनिच्छा से अपने बपौती काम करना पड़ता है। जो आधुनिक समाज के लिए स्वभाविक रूप नहीं है। 

15. जातिप्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण कैसे बनी हुई है ?

उत्तर- उत्तर-जातिप्रथा मनुष्य को जीवनभर के लिए एक ही पेशे में बांध देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त या अपर्याप्त होने के कारण वह भूखों मर जाए। आधुनिक युग में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया तथा तकनीक में निरंतर विकास और अकस्मात् परिवर्तन होने के कारण मनुष्य को पेशा बदलने की आवश्यकता पड़ सकती है। किन्तु, भारतीय हिन्दू धर्म की जाति प्रथा व्यक्ति को पारंगत होने के बावजूद ऐसा पेशा चुनने की अनुमति नहीं देती है जो उसका पैतृक पेशा न हो। इस प्रकार पेशा परिवर्तन की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारतीय समाज में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

16. लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या किसे मानते हैं और क्यों?

उत्तर- उत्तर-लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या जाति प्रथा को मानते हैं। जाति प्रथा के कारण पेशा चुनने में स्वतंत्रता नहीं होती। मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रुचि का इसमें कोई स्थान नहीं होता। मजबुरी वश जहाँ काम करने वालों का न दिल लगता हो वहाँ दिमाग कोई कुशलता कैसे प्राप्त कर सकता है। अतः यह निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है।

17. लेखक ने पाठ में किन प्रमुख पहलुओं से जाति प्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है ?

उत्तर- उत्तर-जाति प्रथा के कारण श्रमिकों का अस्वभाविक विभाजन हो गया है। आपस में ऊँच-नीच की भावना भी विद्यमान है।जाति प्रथा के कारण अनिच्छा से पुस्तैनी पेशा अपनाना पड़ता है। जिसके कारण मनुष्य की पूरी क्षमता का उपयोग नहीं होता। आर्थिक विकास में भी जातिप्रथा बाधक बन जाती है।

18.सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने किन विशेषताओं को आवश्यक माना है?

डॉ. भीमराव अंबेदकर ने सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए निम्नांकित विशेषताओं का उल्लेख किया है –

सच्चे लोकतंत्र के लिए समाज में स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व भावना की वृद्धि हो। समाज में इतनी गतिशीलता बनी रहे कि कोई भी वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचालित हो सके। समाज में बहुविध हितों में सबका भाग होना चाहिए और सबको उनकी रक्षा के प्रति सजग रहना चाहिए। सामाजिक जीवन में अबाध संपर्क के अनेक साधन व अवसर उपलब्ध रहने चाहिए। दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारा होना चाहिए।

इन्हीं गुणों या विशेषताओं से युक्त तंत्र का दूसरा नाम लोकतंत्र है।“लोकतंत्र शासन की एक पद्धति नहीं है, लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान भाव हो।”

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